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ये लिखते हुए कलम कांपती हैये लिखने को शब्द नहीं है

ByMukesh Kumar Kashyap

Apr 28, 2025

ये लिखते हुए कलम कांपती है
ये लिखने को शब्द नहीं है
किस तरह निभाऊं इंसानियत का फ़र्ज़
उस नवविवाहिता के दिल का दर्द
हाथों से मेहंदी छूटी भी न थी
और मांग उसकी गई उजड़
दिलसे निकलती है आह सर्द
कितने हैवान , नरभक्षी थे वो बेदर्द
सोच रहीं हूँ पहलगाम पे कविता लिखूं
धर्म पूछकर जो गोली चलाते हैं
उनका क्या धर्म है पूछती हूँ
कौनसा धर्म की बात ये करते है
ये तो ख़ुद की ही चलाते हैं
इनका मज़हब न ज़ात है कोई
इनसे बदनाम हमारी क़ौम हुई
आज हम बहुत हैं शर्मिन्दा
इनके गुनाहों से हैं हम परेशां
आज पीस रहा है हर मुसलमां
क्या ये मेरे दीन की है तालीम
नाम से जिसके ये फ़साद मचाते हैं
सोचती हूँ हो जाऊं गोशा नशीं
उठ गया है मेरा इंसां से यक़ी
मैं किसी को भी नज़र न आऊं
और आखिरकार कलम उठाती हूँ
सोचती हूँ मेरे लिखने से
दर्द अपना सभी से बॉटने से
दिल से भारी ये बोझ हटे
मेरी इस छोटी सी कोशिश से
ये अंधेरा किसी तरह तो छठे
हर तरफ़ अम्न के गुंचे खिले
सोई इंसानियत किसी तरह जगे
भाव दिल के सभी कविता में लिखूं
सोचती हूँ पहलगाम पे कविता लिखूं

लेखिका
नूरुस्सबाह खान

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